रवि आनंद
कोरोना के कारण लोगों की दुनिया लगभग तबाह हो गई है। कुछ को यह बात समझ में आ गई है तो कुछ अभी भी शुतुरमुर्ग की तरह आंख बंद कर संकट टलने की बाट जोह रहे हैं। दुनिया भर में जहां लगभग पांच लाख लोगों की मौत हो गई है फिर भी कुंभकर्णी नींद जारी है वो भी समझ से पड़े है। अकेले अमेरिका में मृतकों की संख्या एक लाख से अधिक है और बार-बार इसे प्रकृति आपदा ना मानते हुए चीन द्वारा निर्धारित कोरोना संक्रमण के फैलने की बात कह कर चुप हो जाना भी रहस्य को और बढ़ता है, अन्य देशों के तुलना में खुद को अलग थलग रखने वाले देश ऑस्ट्रेलिया न्यूजीलैंड ने इस बीमारी से निजात भी कुछ हद तक पा ली। भारत की कोरोना संक्रमण के साथ कोरोना के कोविड 19 के जनक से भी संघर्ष चल रहा है। भारत दुनिया का शायद एकलौता देश है जो कोरोना के लिए जिम्मेवार चीन से युद्ध करने के लिए अब कमर तक कस ली है। चीन भी दुनिया भर के देशों के दवाब को कम करने के लिए भारत की सीमा में घुसपैठ कर युद्ध के लिए ललकार रहा है।
भारत को युद्ध में जाने से पहले अपने देश के उन परिवार के बारे में सोचना पड़ रहा है जो दुनिया की रहस्मयी आँकड़ो की अर्थव्यवस्था के इंद्रजाल में फंस गए हैं। भारतीय अर्थव्यवस्था का आधार कभी बचत हुआ करता था। हम अक्सर देखते थे कि लोगों ने अपने आमदनी के अनुसार बचत करते और उसे सुरक्षित रखते थे। आमदनी के लगभग तीस प्रतिशत वो बचत के लिए रखते थे और अपनी साधनों को सीमित रख कर जीवन यापन कर पर गर्व करते आ रहे थे। भारतीय लोगों में अपने काम के प्रति आस्था थी हर को अपने रोजी रोजगार से प्यार था, कोई काम छोटा बड़ा नहीं था, होटल, ढाबा, खेती के साथ कुटीर उद्योग में कपड़ा, सोना के आभूषण, लोहे का काम लकड़ी के काम,चमड़े का काम मिट्टी के काम के अलावा भी अन्य रोजी रोजगार सभी सुचारू रूप से चल रहे थे। देश ने इन्ही समय में हरित क्रांति, स्वेत क्रांति कर देश को आत्मनिर्भर बनाने का भी सफल प्रयास किया। अतीत की सोने की चिड़िया तीन सौ साल तक आक्रांताओं को झेलने के बाद भी भी पुनः तेजी से विश्वपटल पर उभरने लगा था। इस दौरान देश को पड़ोसी देशों से युद्ध भी झेलना पड़ा पर हम डिगे नहीं।
हम तब लड़खड़ा गए जब हम अपनी संस्कृति के अनुसार
वसुधैव कुटुम्बकम् यानी' धरती ही परिवार 'पर हम भरोसा किए और चाणक्य के अर्थशास्त्र के नियमों को कुछ देर के लिए त्याग दिया था परिणामस्वरूप दुनिया ने हमारा दोहन आरंभ किया सबसे पहले हमारी शिक्षा व्यवस्था को चौपट किया फिर संस्कृति पर प्रहार किया और अंत में अर्थव्यवस्था पर। शिक्षा व्यवस्था को पश्चिमी देशों के अनुसार करा कराकर युवाओं के सोच पर प्रहार किया उन्हें भारतीय परिवेश में भी बंद गले का लिबास ओढ़हा दिया जो कल तक धोती कुर्ता में आराम से बैठ कर अपने अपने पारम्परिक कार्य करते थे उन्हें अब यह काम पैंट शर्ट टाई में करने में परेशानी हुई और अब यह व्यवसाई छोड़ कर नौकर बनने निकल पड़े।जहां इनकी कलाकारी की जरूरत नहीं थीं। इन्हें बस अब आदेशपाल बन कर रहना पड़ता था। बदले में एक निश्चित राशि प्राप्त हो जाती थी। आजादी के बाद में ठीक उसी प्रकार जैसे भारत की सेना ने पाकिस्तान की सेना की बांग्लादेश की लड़ाई में आत्मसमर्पण किए सैनिकों को खूब खातिरदारी कर पूरी दुनिया से सहानुभूति पाई थी। पर तब हमें विदेशी कंपनियों के लोकलुभावन बातों पर तुरंत यकीन होने लगा था , देश के लोगों को अब दूध से अधिक शराब पर यकीन होने लगा। अब अंतरराष्ट्रीय बाजार में भारत की मांग को देखते हुए यहां पर विज्ञापन के माध्यम से विदेशी कंपनियों ने इसका दोहन आरंभ किया। इसके लिए भारत सरकार ने भी कोई मापदंड तबतक नहीं बनाया था और विदेशी कंपनियों के लोकलुभावन विज्ञापन को हम सच मान कर अपनी बचत संस्कृति को खत्म कर कर्ज संस्कृति यानी हर चीज के लिए लोन उपलब्ध । अगर आपको पढ़ाई करनी है तो लोन, गाड़ी लेनी है तो लोन घर बनाना है तो लोन, काम धंधे के लिए भी लोन उपलब्ध कराई गई। नतीजा सबने अपने चादर से पाव निकलना आरंभ किया और आमदनी से अधिक खर्च करने लगे। कल तक जो कर्ज को प्रगति में बाधक मान रहे थे वही लोग अब लोन और EMI को स्टेटस सिंबल के तौर पर लेने लगे थे।
कोरोना के कारण दिहाड़ी मजदूर की स्थिति तो सबको नजर आ गई पर उन वेतनभोगी मजदूर का कष्ट किसी को नजर नहीं आ रहा है क्योंकि कल तक जो गाड़ियों में फर्राटे भर रहा था आज उसके घर में आटा भी नहीं है। अब क्रेडिट कार्ड का बिल भी भरना है गाड़ी की क़िस्त भी देनी है और फ्लैट का EMI भी देना है और ऑफिस मार्च महीने से बंद है तनख्वाह आ नहीं रही कुछ बचत है नहीं स्कूलों से भी बच्चों के फ़ी के साथ अन्य शुल्कों की बिल भी आ चुकी है। कल तक जो शेयर बाजार में सट्टा बाजार से उम्मीद लागए रहते थे वो भी औंधे मुंह गिरा हुआ है। ऐसे में वेतन भोगी मजदूर क्या करें? खबरों में आया कल तक अंग्रेजी के शिक्षक रहे व्यक्ति अब चाय की दुकान पर मजदूूूरी करने पर विवश हैं, रहे व्यक्ति को चाय की दुकान पर नौकरी करनी पड़ी तो अन्य लोगों का क्या होगा जो बड़ी बड़ी डिग्री लेकर नौकरियों के आधार पर बड़े बड़े लोन ले कर देश की अर्थव्यवस्था की मजबूती में सहयोगी बने थे। आज उनकी इसी सोच ने ना केवल देश का बल्कि दुनिया भर की अर्थव्यवस्था को आसानी से नुकसान पहुचा दिया। क्योंकि आधुनिक शिक्षा व्यवस्था में सवाल पूछना गुनाह था। और 'मार्केटिंग का महामंत्र बॉस इस ऑलवेज राइट' के कारण आज देश के लगभग सभी वेतनभोगी मजदूर का हाल एल सा है। उम्मीद यही है कि कोरोना काल से कुछ लोगों में भी सकारात्मक सोच आएगी।
(लेखक पावन भारत टाइम्स समूह के बिहार स्टेट ब्यूरो हैं)